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माॅ

माॅ
माॅं है वो
हर घड़ी, हर वक्त, हर पल
मानो हममें ही जीतीं हैं वो
उनकी हॅंसी, अक्सर हमें धोखा दे देती है,
और हम,
देख नही पाते, उनकी हॅंसी के पीछे का दर्द
पर
हमारी मुस्कुराहट के पीछे,
छुपे हमारे हर दर्द को समझ जाती हैं वो
और
हमारे हर दर्द को देखते है हम उनकी आॅंखो मे,
जब अॅंासू बनकर झलकते है वो,
उनकी आॅंखो से
उनकी नजरो में उनकी नहीं हमारे सपने होते हैं,
जागती हैें वो हमारे लिए,
जब हम चैन से सोते हैं
लापरवाह भले हो जाए हम,
अपनी जरुरतो के लिए,
पर हम
हमेशा सतर्क रहती हैं वो,
हमारे लिए
जब कभी भटकते हैं हम अपने रास्तो से तो,
सही मार्ग दिखती हैं वो
अपनी आशिष, अपनी मन्नतो से
हमको सफल बनाती हैं वो,
माॅं हैं वो
अपने हिस्से का भी प्यार
हम पर लूटा देती हैं वो।

Comments

  1. Apratim, chand shabdo me hi jyada kuchh kah jati hai ye kavita.

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  2. बहुत कुछ हो रहा है इस तरक्की के जमाने में,
    क्योंकि इस तरक्की में इंसानियत चली जा रही हैं।।

    यह कविता जो मां को समर्पित है इसके लिए कवित्री को धन्यवाद..!, मां के प्रेम व उनकी अपने बच्चों के प्रति चिंता को शब्दों में बताया तो नहीं जा सकता पर इस कविता में बेहद सराहनीय प्रयास किया गया है।

    ReplyDelete

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सखी

गलियों में कूदती बागों में झूलती कागज की कश्ती पानी की मछली जुगनू को पकड़ना बालो का उलझना ये मेरी वो तुम्हारी नहीं-नहीं अब मेरी बारी  छुपन-छुपाई का खेल झगड़ा-लड़ाई और मेल कुछ तीखी कुछ मीठी आज भी सॅजोकर रखी है सखी तुम्हारी स्मृति। -सुप्रिया वर्मा
शब्दशः कविताएं उन अनुभूतियों का साक्षात्कार हैं जो कल्पनाओं से शब्द लेकर यथार्थ-क्षिति पर विचरती हैं। अहसास जब राग-रागिनियां बन जाती हैं तब जिंदगी भी एक कविता बन जाती है।