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माॅ

माॅ
माॅं है वो
हर घड़ी, हर वक्त, हर पल
मानो हममें ही जीतीं हैं वो
उनकी हॅंसी, अक्सर हमें धोखा दे देती है,
और हम,
देख नही पाते, उनकी हॅंसी के पीछे का दर्द
पर
हमारी मुस्कुराहट के पीछे,
छुपे हमारे हर दर्द को समझ जाती हैं वो
और
हमारे हर दर्द को देखते है हम उनकी आॅंखो मे,
जब अॅंासू बनकर झलकते है वो,
उनकी आॅंखो से
उनकी नजरो में उनकी नहीं हमारे सपने होते हैं,
जागती हैें वो हमारे लिए,
जब हम चैन से सोते हैं
लापरवाह भले हो जाए हम,
अपनी जरुरतो के लिए,
पर हम
हमेशा सतर्क रहती हैं वो,
हमारे लिए
जब कभी भटकते हैं हम अपने रास्तो से तो,
सही मार्ग दिखती हैं वो
अपनी आशिष, अपनी मन्नतो से
हमको सफल बनाती हैं वो,
माॅं हैं वो
अपने हिस्से का भी प्यार
हम पर लूटा देती हैं वो।

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रात

रात शाम के चैखट पर ओढ़ के काली चादर आती रात धीरे से लेकर थैले में स्वप्न अनगिन फिर आॅंखो के काजल को चारो ओर बिखेर देती है ेखट्टे मिठे सपनो को सबके अपने हिस्सेें भेंज देती है कुछ समय के लिए भटकाकर सबको               हर सवेरे वह खुद भटक जाती है फिर दस्तक देती रात जब जब शाम आती है।

शब्द

शब्द किया किसने निर्मित इसे वर्णो को जोड़कर किस सक्षम की सार्थकता ने किया सार्थक बोलकर, शब्दो से संधि हुई शब्द में विच्छेद हुआ किन्ही शब्दो में मेल हुई किन्ही शब्दो से मतभेद हुआ, शब्द कब तीर से तेज चुभी क्ब तीखी मधुर मुस्कान बनी शब्द कभी औषधि हुई कभी किसी की प्राण बनी, किसने इन शब्दो को भावो में पिरोया है शब्दो के जाल में बुद्धिजीवी खोया है, शब्द कब माध्यम बना व्यक्ति से व्यक्ति के पहचान का शब्द कब आधार बना जीवन के विकास का, शब्द कभी कायर बना  कभी वीरो का ललकार भी शब्दो से कभी युद्ध हुआ कभी प्रेम प्रलाप भी, शब्दो से रचा-बसा साहित्य से समाज तक किसने रचा शब्द को वर्ण से वाक्य तक।